आज सोशल मीडिया खोलते ही मन में एक अजीब सी उदासी छा जाती है। जो कुछ हम देखते हैं, वो हमें अंदर तक झकझोर देता है। ये बस मेरे दिल का दर्द या सवाल नहीं है अपितु आज हर संवेदनशील व्यक्ति के मन में कहीं न कहीं गूँज रहा है।
बदलते रिश्ते: खोया हुआ बचपन और टूटता विश्वास
हम सभी ने बचपन से कहानियों में सुना है कि “पति परमेश्वर होता है”, कि “जोड़ियाँ तो ऊपर से बनकर आती हैं”, और हमारी शादी उसी से होगी जिससे हमारा “कुमकुम भाग्य जुड़ा हुआ है”। ये बातें सिर्फ़ शब्द नहीं थीं, बल्कि ये हमारे समाज की नींव थीं, विश्वास की वो डोर थीं जो रिश्तों को बाँधे रखती थीं। ये हमें एक ऐसी दुनिया का सपना दिखाती थीं जहाँ प्यार अमर होता है, और जहाँ जीवन साथी के साथ हर मुश्किल आसान हो जाती है।
लेकिन जब आज हम इन्हीं सपनों को हकीकत में टूटते देखते हैं, जब शादी जैसे पवित्र बंधन को एक मज़ाक बनते देखते हैं, तो मन में ये सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? ये प्रश्न मेरे मन को भी बार-बार कुरेदता है, और मुझे अपने भीतर से इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता। फिर मन में सवाल उठता है कि क्या मेरी आत्मा इतनी मैली हो गई है कि मैं ईश्वर के बनाए इस संसार को समझ नहीं पा रहा?
नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं है। मेरी आत्मा मैली नहीं हुई है, बल्कि शायद इंसानों ने अपने स्वार्थ की आग में, अपनी क्षणभंगुर इच्छाओं की पूर्ति के लिए, इस पवित्र संसार को इतना उलझा दिया है कि अब आम आदमी के लिए इसे समझना सचमुच मुश्किल हो गया है।
दिखावे की दौड़ में खोती पवित्रता
आज हम देखते हैं कि कुछ लोग बड़ी धूमधाम से शादियाँ करते हैं – लाखों, करोड़ों का दिखावा, भव्य समारोह, लेकिन कुछ ही दिनों में उस सबसे पवित्र रिश्ते को बेरहमी से मार कर कहीं दूर किसी खाई में फेंक देते हैं।जिससे पूरी मानवता शर्मसार हो जाती है तो कहीं किसी पिता की लाडली बेटी सूटकेस में बंद मिलती है। कहीं प्यार के नाम पर सिर्फ़ धोखा और फ़रेब रहता है । परिवार षड्यंत्र का एक अड्डा बन गया है । ये अब कोई इक्का-दुक्का घटनाएँ नहीं हैं; हर दिन का अख़बार ऐसी ही दिल दहला देने वाली ख़बरों से भरा रहता है।
रिश्तों की मर्यादा, आपसी सम्मान, और एक-दूसरे के प्रति निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण – ये सब न जाने कहाँ पीछे छूट गए हैं। ऐसा लगता है जैसे अब परमार्थ (दूसरों की भलाई के लिए जीना) को ‘पागलपन’ कहकर मज़ाक उड़ाया जाता है, और स्वार्थ का ऐसा गुणगान हो रहा है कि मानो यही इस संसार को चलाने वाली एकमात्र भावना बची हो। यह सब देखकर ऐसा लगता है जैसे हमारे समाज से कुछ बहुत अनमोल भावना हमेशा के लिए खो गया है।
ये दर्द, ये निराशा सिर्फ़ मेरी नहीं है; यह एक सामूहिक आह है जो आज के समाज के गहरे घावों को बयाँ करती है। इस सब के बावजूद, हमें अपने अंदर की उम्मीद की लौ को बुझने नहीं देना चाहिए। दुनिया में आज भी ऐसे लोग हैं जो रिश्तों की कद्र करते हैं, उन्हें निभाते हैं, और प्यार को एक पवित्र बंधन मानते हैं। ज़रूरी है कि हम अपनी आस्था और अपने मूल्यों को थामे रखें, और अपने आसपास की सकारात्मकता को सहेजें। शायद यहीं से बदलाव की शुरुआत होगी – एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक, रिश्तों में फिर से विश्वास और सम्मान लाने की दिशा में।