आदर्श संतान चाहिए? तो खुद आदर्श बने !

“जो बीज तुम बोते हो, वही फसल काटते हो।”

“जैसे तुम बनोगे, वैसे ही तुम्हारे बच्चे बनेंगे।”

“संतान दर्पण है; जैसा प्रतिबिंब तुम दोगे, वैसा ही वे दिखाएंगे।”

माता-पिता अक्सर इस बात को भूल जाते हैं कि बच्चे उपदेशों से नहीं, बल्कि उदाहरणों से सीखते हैं।यह एक कड़वी सच्चाई है कि जो माता-पिता खुद अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करते या उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते, वे अपनी संतान से यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि उनकी संतान उनका आदर करे और यशस्वी बने?बच्चों पर माता-पिता के आचरण का गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि माता-पिता स्वयं ईमानदार, मेहनती  और नैतिक मूल्यों का पालन करने वाले होंगे, तो बच्चे स्वतः ही उन गुणों को अपनाएंगे। इसके विपरीत, यदि माता-पिता के कर्म उनकी बातों से मेल नहीं खाते, तो बच्चे उन उपदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, चाहे वे कितने भी अच्छे क्यों न हों।इसलिए, यदि कोई माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान उनका आदर करे और समाज में सफल हो, तो उन्हें सबसे पहले स्वयं को परिष्कृत करना होगा। उन्हें अपने कर्मों में सुधार लाना होगा और एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना होगा जिसका अनुसरण उनकी संतान खुशी-खुशी करे। यह स्वयं पर काम करने और अपने बच्चों के लिए एक सकारात्मक रोल मॉडल बनने की बात है।  

यह सिर्फ़ एक विचार नहीं, बल्कि जीवन का एक कड़वा सत्य है जिसे अक्सर हम माता-पिता के रूप में भूल जाते हैं। हम अपने बच्चों को दुनिया की हर अच्छी बात सिखाना चाहते हैं, उन्हें संस्कार देना चाहते हैं, उन्हें सफल देखना चाहते हैं, लेकिन जाने-अनजाने में हम यह भूल जाते हैं कि हमारी जुबान से निकले शब्द नहीं, बल्कि हमारे कर्म ही उनके लिए सबसे बड़ी पाठशाला होते हैं।ज़रा सोचिए, क्या यह न्यायसंगत है कि जो बेटा खुद अपने माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल गया हो, जो उनकी परवाह न करता हो, वह अपनी संतान से यह उम्मीद करे कि वह उसका आदर्श बेटा बने? क्या यह संभव है कि जिस बीज को हमने खुद खाद-पानी नहीं दिया, उससे हम स्वादिष्ट फल की आशा करें? यह दिल को झकझोर देने वाला सवाल है।

हमारी करनी और कथनी का अंतर

हम अपने बच्चों को अनुशासन सिखाते हैं, पर खुद देर रात तक मोबाइल में व्यस्त रहते हैं। हम उन्हें ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं, पर खुद छोटे-मोटे झूठ बोलने से नहीं हिचकते। हम उन्हें दूसरों का सम्मान करने को कहते हैं, पर खुद अपने बड़ों या अपने आसपास के लोगों के प्रति कठोर हो जाते हैं। बच्चे ये सब देखते हैं, महसूस करते हैं। वे हमारे शब्दों को शायद भूल जाएँ, लेकिन हमारे व्यवहार का नक्शा उनके दिलो-दिमाग पर हमेशा के लिए छप जाता है।यह ठीक वैसे ही है जैसे एक माली अपने पौधों को कहता रहे कि तुम बड़े हो जाओ, पर उन्हें समय पर पानी न दे। क्या वे पौधे कभी फल-फूल पाएंगे? नहीं। इसी तरह, हम कितना भी उपदेश दें, कितनी भी कहानियाँ सुनाएँ, अगर हमारे अपने कर्मों में वह पवित्रता, वह सच्चाई नहीं है जो हम अपनी संतान में देखना चाहते हैं, तो हमारे सारे प्रयास व्यर्थ हैं।

बदलाव की शुरुआत हमसे

अगर हम सच में चाहते हैं कि हमारी संतान हमारा आदर करे, समाज में उसका नाम हो, तो हमें सबसे पहले खुद को बदलना होगा। हमें अपने भीतर झाँकना होगा, अपनी कमियों को स्वीकार करना होगा और उन पर काम करना होगा। जब हम खुद एक बेहतर इंसान बनेंगे, जब हमारे कर्म हमारी बातों से मेल खाएंगे, जब हम खुद अपने माता-पिता और बड़ों का सम्मान करेंगे, तभी बच्चे उस सम्मान को सीखेंगे और अपने जीवन में उतारेंगे।यह कोई आसान राह नहीं है, इसमें तपस्या लगती है। लेकिन यह वो निवेश है जिसका फल केवल हमारी संतान को नहीं, बल्कि हमें भी मिलेगा – एक सम्मानजनक और प्रेम से भरा रिश्ता, और एक ऐसी पीढ़ी जिसे हमने अपने उदाहरण से सींचा है।

By Aruna Shaibya

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