सावन : क्यों है पावन पूछो ये मन से

सावन क्यों है पावन
सावन क्यों है पावन, पूछो ये मन से,
विष पीकर शिव ने बचाया था जग को,
जल चढ़े शिवलिंग पे, शांति बरसे गगन से,
इसलिए हर भक्त जपे “हर हर महादेव” को।

🔱 “ॐ नमः शिवाय, हर हर महादेव!”

सावन का पहला दिन है दोस्तों, और आज जैसे पूरी सृष्टि शिवमय हो गई है। (Part 1)

गगन गूंज रहा है बोल बम, हर हर महादेव से…

शिवालयों में डमरू की गूंज और बेलपत्र की खुशबू हवा में घुल गई है…

लाखों श्रद्धालु कांवड़ लेकर, नंगे पाँव, दिल में शिव नाम लिए बढ़ते चले जा रहे हैं…

ऐसे माहौल में अगर हम “सावन” को न समझें — तो भक्ति अधूरी रह जाएगी।

तो आइए, आज हम मिलकर जानें —

सावन क्यों पावन है?

आख़िरकार सावन मनाने का रहस्य क्या है ?

नीलकंठ महादेव की आखिर क्या है कथा? आख़िर क्या है महादेव के त्याग की कहानी ?

शिवलिंग की प्रकट कथा:  क्या शिव स्वयंभू हैं?

आख़िरकार सावन का क्या है प्राकृतिक और वैज्ञानिक रहस्य?

कैसे हैं भगवान शिव सृष्टि के संतुलनकर्ता ?

और वह सब, जो इस पावन माह को आस्था का महासागर बनाता है।

  सावन (श्रावण मास) हिन्दू धर्म में एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण महीना होता है। यह माह भगवान शिव को समर्पित होता है और इसी कारण इस पूरे महीने में शिव भक्त विशेष पूजा, व्रत और जलाभिषेक करते हैं। सावन का महत्व पौराणिक, धार्मिक और प्राकृतिक तीनों ही दृष्टियों से बहुत गहरा है।

सावन और शिव तो एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं।  भगवान शिव का योगदान सनातन धर्म में सिर्फ एक देवता के रूप में नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के संतुलनकर्ता, त्याग, करुणा और विनाश के माध्यम से सृजन के प्रतीक के रूप में है। वे त्रिदेवों में एक हैं—ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता), विष्णु (पालक), शिव (संहारक)। परंतु शिव केवल संहार नहीं करते, वे अनंत दाता, योगेश्वर, तपस्वी, और आदियोगी भी हैं।

तो आज हम सबसे पहले जानेंगे कि आखिर सावन क्यों मनाते हैं या बारह महीने में इस महीने को ही क्यों इतना पावन माना गया है ?

दोस्तों ! इसे जानने के लिए हमें सबसे पहले समुंद्र मंथन की कथा को जानना पड़ेगा क्योंकि यही से सावन माह और जलाभिषेक का महत्व शुरू होता है । तो चलिए समुंद्र मंथन को जानते हैं

समुद्र मंथन की कहानी विस्तार से

समुद्र मंथन (सागर का मंथन) हिंदू पौराणिक कथाओं में सबसे महत्वपूर्ण है ।

और प्रतीकात्मक घटनाओं में से एक है। यह देवताओं और असुरों (राक्षसों) के बीच अमरता के अमृत को प्राप्त करने के लिए एक महान सहयोग था। यह कहानी जीवन के संघर्षों, अच्छे और बुरे के बीच की लड़ाई और अंततः दिव्य हस्तक्षेप के माध्यम से धर्म की विजय को दर्शाती है।

इंद्र का शाप और देवताओं की शक्तिहीनता

कहानी की शुरुआत तब होती है जब स्वर्ग के राजा इंद्र, अपने ऐरावत हाथी पर सवार होकर, ऋषि दुर्वासा से मिलते हैं। दुर्वासा ऋषि ने इंद्र को एक पवित्र माला भेंट की, जिसे उन्होंने भगवान शिव से प्राप्त किया था। अहंकार में, इंद्र ने माला को अपने हाथी ऐरावत के सिर पर रख दिया। ऐरावत ने माला को अपने सूंड से उतारकर जमीन पर फेंक दिया और उसे कुचल दिया।

इस अपमान से क्रोधित होकर, दुर्वासा ऋषि ने इंद्र और सभी देवताओं को शाप दिया कि वे अपनी सारी शक्ति, धन और सौभाग्य खो देंगे। इस शाप के परिणामस्वरूप, देवता अपनी शक्ति खो बैठे और असुरों के हाथों लगातार हारने लगे। दैत्यराज बलि के नेतृत्व में असुरों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और देवताओं को उनके लोकों से बेदखल कर दिया।

ब्रह्मा और विष्णु की शरण में देवता

अपनी शक्तिहीनता और असुरों के अत्याचार से पीड़ित होकर, देवता ब्रह्माजी के पास गए और उनसे मदद मांगी। ब्रह्माजी ने उन्हें भगवान विष्णु के पास जाने की सलाह दी, क्योंकि वही इस समस्या का समाधान कर सकते थे।

देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की, जिन्होंने उन्हें एक अद्भुत योजना सुझाई: समुद्र मंथन। भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा कि उन्हें असुरों के साथ मिलकर क्षीरसागर (दूध के सागर) का मंथन करना होगा ताकि उसमें से अमृत (अमरता का अमृत) निकल सके। उन्होंने यह भी कहा कि अमृत पीने के बाद देवता अमर हो जाएंगे और असुरों को आसानी से हरा सकेंगे।

मंथन की तैयारी: मंदराचल पर्वत और वासुकी नाग

समुद्र मंथन के लिए दो मुख्य चीजों की आवश्यकता थी:

 * मंथन दंड: मंदराचल पर्वत (मंदर पर्वत) को मंथन दंड के रूप में इस्तेमाल किया जाना था।

 * मंथन रस्सी: नागराज वासुकी (भगवान शिव के गले में लिपटे हुए नाग) को मंथन रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया जाना था।

देवताओं ने असुरों से संपर्क किया और उन्हें अमृत का लालच देकर मंथन में सहयोग करने के लिए राजी किया। असुरों ने इस शर्त पर सहमति व्यक्त की कि उन्हें भी अमृत का हिस्सा मिलेगा।

मंदराचल पर्वत को उसकी जगह से हटाना एक बहुत बड़ा काम था। भगवान विष्णु ने अपने गरुड़ को पर्वत को लाने के लिए भेजा, लेकिन गरुड़ भी इसे उठाने में असमर्थ थे। अंततः, भगवान विष्णु ने स्वयं मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया।

वासुकी नाग को मंथन रस्सी बनने के लिए राजी किया गया, लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी कि मंथन के दौरान निकलने वाले विष का पहला हिस्सा उन्हें मिलेगा।

समुद्र मंथन का आरंभ

मंथन शुरू हुआ। मंदराचल पर्वत को क्षीरसागर के केंद्र में रखा गया और वासुकी नाग को उसके चारों ओर लपेटा गया। देवताओं ने वासुकी के पूंछ वाले हिस्से को पकड़ा, जबकि असुरों ने उसके सिर वाले हिस्से को पकड़ा। भगवान विष्णु ने स्वयं कूर्म (कछुए) का रूप धारण किया और मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर सहारा दिया ताकि वह सागर में डूब न जाए।

मंथन शुरू हुआ, और देवता और असुर बारी-बारी से वासुकी नाग को खींचने लगे। यह एक अत्यंत कठिन और थका देने वाला कार्य था।

हलाहल विष का निकलना

मंथन के दौरान, सबसे पहले जो चीज निकली वह थी हलाहल नामक एक अत्यंत तीव्र और विनाशकारी विष। यह विष इतना भयानक था कि इसकी गंध मात्र से ही ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया। सभी देवता, असुर और अन्य प्राणी भयभीत हो गए, क्योंकि यह विष पूरे ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता रखता था।

कोई भी इस विष को ग्रहण करने को तैयार नहीं था। सभी ने भगवान शिव से प्रार्थना की, जो कैलाश पर्वत पर ध्यान में लीन थे।

भगवान शिव का नीलकंठ बनना

सभी की पुकार सुनकर, भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने सभी के कल्याण के लिए उस भयानक हलाहल विष को पीने का निर्णय लिया। उन्होंने विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। देवी पार्वती ने तुरंत उनके गले को दबा दिया ताकि विष उनके शरीर में प्रवेश न कर सके और उनके मस्तिष्क तक न पहुंच सके।

विष के प्रभाव से भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया, और तभी से उन्हें नीलकंठ के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रकार, भगवान शिव ने ब्रह्मांड को विनाश से बचाया।

विष के कारण शिव के शरीर में अत्यधिक गर्मी उत्पन्न हो गई। इस गर्मी को कम करने और उन्हें ठंडा करने के लिए, देवताओं ने उन्हें जल अर्पित किया और जल, दूध और अन्य शीतलक पदार्थों से अभिषेक किया। ऐसा माना जाता है कि यह घटना सावन के महीने में हुई थी। इसलिए, सावन के दौरान भगवान शिव को जल चढ़ाना और अभिषेक करना अत्यधिक पुण्यकारी माना जाता है। जो शिव को शांत करने और सम्मानित करने के निरंतर प्रयासों का प्रतीक है जिसने ब्रह्मांड को बचाया।

 ⁠देवी पार्वती की तपस्या-

एक और महत्वपूर्ण कथा देवी पार्वती की भगवान शिव से विवाह करने के लिए तीव्र तपस्या से संबंधित है। ऐसा माना जाता है कि देवी पार्वती ने भगवान शिव को प्रसन्न करने और उन्हें अपने पति के रूप में पाने के लिए सावन के महीने में कठोर उपवास और तपस्या की थी। उनकी भक्ति और अटूट प्रतिबद्धता ने अंततः शिव को उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया।

यह कहानी भक्तों, विशेषकर शिव भक्तों को इस महीने के दौरान उपवास (सावन सोमवार व्रत) रखने के लिए प्रेरित करती है, ताकि भगवान शिव और देवी पार्वती से अपना इच्छित वरदान प्राप्त कर सकें । जिससे अच्छे जीवनसाथी , वैवाहिक सुख और समग्र कल्याण की प्राप्ति हो सके।

 ⁠भगवान शिव का ससुराल आगमन-

कुछ क्षेत्रीय मान्यताओं के अनुसार, भगवान शिव सावन के महीने में अपने ससुराल (हिमालय, देवी पार्वती के माता-पिता का निवास) जाते हैं। इस अवधि को खुशी और उत्सव का समय माना जाता है, जो दिव्य यात्रा को चिह्नित करता है। भक्त प्रार्थना करते हैं और उनकी उपस्थिति का जश्न मनाते हैं।

शिव भक्तों के लिए सावन का महत्व:

 * अभिषेक: शिवलिंग पर जल, दूध, बेलपत्र, धतूरा और अन्य पवित्र वस्तुएं चढ़ाने से शिव प्रसन्न होते हैं।

 * उपवास (सावन सोमवार व्रत): सावन के दौरान कई भक्त, विशेषकर सोमवार को उपवास रखते हैं।

 * कांवड़ यात्रा: एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा जिसमें कांवड़िये, गंगा से पवित्र जल लाकर विभिन्न शिव मंदिरों में अर्पित करने के लिए अपने कंधों पर ले जाते हैं।

 * मंत्र और प्रार्थना: महामृत्युंजय मंत्र और पंचाक्षरी शिव मंत्रों का जाप आश्चर्यजनक प्रभाव डालता है ।

संक्षेप में, सावन भगवान शिव की पूजा करने, उनका आशीर्वाद प्राप्त करने और ब्रह्मांड की रक्षा करने वाले उनके परोपकारी कार्यों को याद करने का महीना है। यह गहन आध्यात्मिक प्रथाओं, भक्ति और सर्वोच्च देवता के साथ गहरे संबंध का समय है।

आज हम अपनी बातों को यही पर विराम देते हैं । कल फिर हम सबके प्रिय शिव के साथ एक नए सफ़र पर चलेंगे।

कहानी जारी है… to be continued…

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