कामाख्या: नरकासुर, शाप और अनसुने राज

नरकासुर की अधूरी सीढ़ी से कोच वंश के शाप तक,

कामाख्या के हर रहस्य में है एक अद्भुत कहानी का वास। (Part 5)

नमस्ते दोस्तों!

कामाख्या, यह नाम सुनते ही मन में एक अजब सी श्रद्धा और रोमांच उमड़ पड़ता है। तंत्र की राजधानी के रूप में विख्यात यह धाम सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि माँ आदिशक्ति की साक्षात उपस्थिति का अनुभव है। सच कहूँ तो माँ कामाख्या के रहस्यों को पूरी तरह जान पाना हम इंसानों के बस की बात नहीं। यह तो माँ जगत जननी की असीम अनुकम्पा है कि मैं आप सभी के साथ उनके बारे में कुछ अद्भुत बातें साझा कर पा रही हूँ।

आज के इस लेख में, हम माँ कामाख्या से जुड़ी कुछ अविश्वसनीय कहानियों में गोता लगाएँगे:

 *आख़िरकार नरकासुर ने कैसे माँ के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा?

 * कामाख्या के नीलगिरी की अधूरी सीढ़ियों का क्या रहस्य है?

 * क्यों उमानंद भैरव की पूजा के बाद ही माँ की पूजा सफल मानी जाती है?

 * क्यों माता ने कोच वंश के शासकों को दिया था श्राप?

 * आखिर क्यों माता ने अपने सबसे प्रिय भक्त को पत्थर का बना दिया था?

 * मंदिर के स्थापत्य की क्या है कहानी?

 * क्यों इस मंदिर पर मुगलों ने भी किया था आक्रमण?

तो चलिए, आज की इस अद्भुत यात्रा पर आगे बढ़ते हैं!

नरकासुर और माँ कामाख्या की अनूठी कहानी

माँ कामाख्या की कहानी में नरकासुर का नाम बेहद महत्वपूर्ण है। एक कथा के अनुसार, एक समय ऐसा था जब माँ कामाख्या के मंदिर के ऊपर असुर राजा नरकासुर का राज था। शुरुआत में नरकासुर माँ कामाख्या का बहुत बड़ा भक्त था, लेकिन समय के साथ शक्ति की लालसा में उसने माँ कामाख्या से विवाह का प्रस्ताव रख दिया।

माँ ने उसे सीधे मना नहीं किया, बल्कि एक बड़ी दिलचस्प शर्त रखी। उन्होंने कहा, “अगर तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो, तो नीलांचल पर्वत की चोटी तक एक सीढ़ी का निर्माण कर दो, और याद रखना, जैसे ही सुबह हो, तुम्हारा काम पूरा हो जाना चाहिए।” नरकासुर ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। उसकी विशाल सेना, जिसमें हजारों दैत्य, पिशाच और भूत शामिल थे, रात में सीढ़ी बनाना शुरू कर दिया। वो काम पूरा करने के बहुत करीब था, जब माँ को इसका आभास हुआ कि वह अपना लक्ष्य प्राप्त करने वाला है।

तब माँ ने अपनी शक्ति से एक मुर्गे को जल्दी बांग देने के लिए प्रेरित किया। मुर्गे की बांग सुनते ही नरकासुर को लगा कि वह असफल हो गया है। और वह अधूरी सीढ़ी छोड़कर अपने महल लौट गया। थोड़ी ही देर बाद उसे एहसास हुआ कि माँ ने चतुराई से उसे धोखा दिया था। क्रोधित नरकासुर ने माँ की भक्ति का मार्ग बंद करने की ठान ली और इस सीढ़ी को वहीं छोड़ दिया। आज भी कामाख्या जाने वाले भक्त उस अधूरी सीढ़ी को देख सकते हैं, जिसे मैकलाच पाथ कहा जाता है।

जिस मुर्गे ने बांग दी थी, नरकासुर ने उसे मार डाला। जिस स्थान पर उस मुर्गे को मारा गया था, आज उस स्थान को कुकुराकाटा के नाम से जाना जाता है। जंगलों के बीच, खंडहर जैसी स्थिति में, कई बार किसी ने उन अधूरी सीढ़ियों को फिर से पूरा करने की कोशिश की, लेकिन हर बार कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती है। कई लोग रास्ता भटक जाते हैं, और कईयों ने तो वहां अजीब-अजीब आवाजें सुनने की भी बात कही है। लोग कहते हैं कि यह सीढ़ी अधूरी इसलिए है क्योंकि देवी ने खुद चाहा था कि कोई भी उस पवित्र शक्ति तक गलत इरादों से न पहुँचे।

भैरव के दर्शन के बिना अधूरी है कामाख्या यात्रा

कामाख्या एक तांत्रिक पीठ है, और तंत्र में बिना भैरव की कृपा के कोई भी तांत्रिक साधना सफल नहीं मानी जाती। भैरव को द्वारपाल भी माना जाता है, और बिना उनकी अनुमति के कोई भी साधक गर्भगृह की शक्ति को नहीं समझ सकता। कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है। उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं। यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में स्थित है। कहा जाता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। यह मान्यता इस बात की पुष्टि करता है कि किसी भी शक्तिपीठ में, उस स्थान के भैरव की अनुमति और आशीर्वाद अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।

बलि से जुड़ा रहस्य और नरकासुर का वध

दोस्तों,

 कामाख्या मंदिर कोई साधारण शक्तिपीठ नहीं है; यह विश्व का प्रमुख तांत्रिक केंद्र है। मान्यता है कि देवी कामाख्या को खून चढ़ाने से वह साधक की इच्छा जल्दी स्वीकार करती हैं। इसी वजह से यहां बलि दी जाती है। पुराणों में बताया गया है कि कामाख्या में नरकासुर की मृत्यु के बाद नरबलि की प्रथा शुरू हुई थी।

जैसा कि हमने बताया था, नरकासुर ने कामाख्या देवी से विवाह का प्रस्ताव रखा था, लेकिन माता ने उसके सामने एक रात में सीढ़ियां बनाने की शर्त रखी थी। नरकासुर इस शर्त को पूरा नहीं कर पाया था, और माँ कामाख्या ने उसे छल से परास्त किया था। जब उसे इस बात का पता चला, तो उसने कन्याओं का अपहरण करना शुरू कर दिया। उसने लगभग 16,000 कन्याओं का अपहरण कर लिया ।

इस बात से दुखी माता कामाख्या ने श्रीकृष्ण से नरकासुर का वध करने की प्रार्थना की। क्योंकि उसको आशीर्वाद प्राप्त था कि वह किसी देवी के हाथों नहीं मारा जा सकता । इसके बाद, भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध कर उन 16,000 स्त्रियों को आजाद करवाया था ।

नरकासुर का वध कामाख्या क्षेत्र में ही हुआ था, और यहीं से कहानी एक नया मोड़ लेती है। नरकासुर की मृत्यु के बाद, उसके कुछ अनुयायियों और तांत्रिकों ने यह विश्वास किया कि देवी कामाख्या को प्रसन्न करने के लिए मानव बलि सबसे शक्तिशाली साधना है। कहा जाता है कि नरकासुर के अनुयायियों ने उसकी मृत्यु के पश्चात प्रतिवर्ष एक व्यक्ति की बलि देकर देवी से मुक्ति, शक्ति और सिद्धि की प्रार्थना शुरू कर दी। इसी से नरबलि की परंपरा की शुरुआत हुई।

 प्राचीन असम में, खासकर अहोम राजाओं के शासन काल में, कामाख्या मंदिर में इंसानों की बलि दी जाती थी। ये बलि खास तौर पर राजनीतिक या युद्धकालीन कामनाओं की सिद्धि के लिए होती थी। तांत्रिक अनुष्ठानों के दौरान बलि देना माँ को प्रसन्न करने का माध्यम माना जाने लगा।

हालांकि, वर्तमान समय में कामाख्या के अंदर इंसानों की बलि पर कानूनी रोक लगाई गई है। लेकिन बकरों और कबूतरों की बलि आज भी यहां दी जाती है, खासकर अंबुबाची मेले में और नवरात्रि जैसे अवसरों पर। बलि से पहले जानवरों को स्नान करवाया जाता है, तांत्रिक मंत्रों से शुद्ध किया जाता है, और फिर देवी को अर्पित किया जाता है।

नरकासुर से जुड़ी एक और रोचक कथा प्रचलित है कि माँ कामाख्या से हार मान लेने के बाद नरकासुर किसी को भी माँ के दर्शन नहीं करने देता था। माँ के पास जाने वाले रास्ते में उसने अपनी सेना लगा रखी थी। कुछ समय बाद, महर्षि वशिष्ठ माँ कामाख्या के दर्शन के लिए आए, लेकिन नरकासुर की सेना ने उन्हें रोक दिया। महर्षि ने नरकासुर से कहा, “तुम्हें अंदाज़ा नहीं है कि तुम किस सिद्ध के सामने खड़े हो।” लेकिन नरकासुर ने माँ कामाख्या की भक्ति को बाधित करने का अपना निर्णय नहीं बदला। तब महर्षि वशिष्ठ ने नरकासुर को श्राप दिया कि उसका वध भगवान विष्णु के अवतार द्वारा होगा और माँ कामाख्या हमेशा के लिए इस क्षेत्र को छोड़कर चली जाएंगी।

नरकासुर ने जब भागकर वहां कामाख्या के मंदिर में देखा, तो माँ की योनि पीठ अदृश्य हो चुकी थी। महर्षि वशिष्ठ के श्राप के अनुसार, माँ इस क्षेत्र को सदा के लिए छोड़ गई थीं। नरकासुर के वध के बाद, माँ को वापस बुलवाने के लिए महर्षि वशिष्ठ को फिर से बुलाया गया। महर्षि ने कहा, “अब माँ की कृपा प्राप्त करने के लिए यहां केवल वामाचार पद्धति अपनाई जाएगी।” इसी श्राप के कारण कामाख्या मंदिर में आज वामाचार पद्धति और बलि प्रथा का प्रचलन है, जिससे माँ कामाख्या की उपासना की जाती है।

कोच राजवंश और माँ का श्राप

दोस्तों,

ये तो रही नरकासुर की कहानी। अब हम अपने इस सफर को कोच राजवंश की तरफ ले चलते हैं, जहाँ माँ कामाख्या का एक और रहस्य छिपा है।

कामाख्या मंदिर की पौराणिकता में कोच राजवंश और देवी का दिया हुआ श्राप एक महत्वपूर्ण और रहस्यमयी स्थान रखता है।

 यह कथा हमें सदियों पहले ले जाती है, जब कोच राजवंश का शासन असम के अधिकांश हिस्सों में फैला हुआ था और मंदिर का मुख्य संरक्षक यही राजवंश था। कोच वंश के राजा नर नारायण, देवी के परम भक्त थे, और उनके मंदिर में उनकी आस्था अटूट थी। राजा का विश्वास था कि देवी उनकी हर प्रार्थना सुनती हैं और उन्हें शक्ति प्रदान करती हैं।

राजा नर नारायण प्रतिदिन कामाख्या मंदिर में देवी के दर्शन करने के लिए जाते थे। उस समय मंदिर के मुख्य पुजारी केंदु कलई थे, जो देवी के परम भक्त माने जाते थे। कहा जाता है कि केंदु कलई की भक्ति इतनी गहरी थी कि देवी स्वयं उनके सामने प्रकट होती थीं। केंदु कलई अपनी आँख पर पट्टी बांधकर भजन करते थे, और माता उनके भजन पर प्रसन्न होकर नृत्य किया करती थीं। माँ उनकी हर प्रार्थनाओं को सुना करती थीं। केंदु कलई देवी के प्रति अपनी आस्था और पूजा में इतने लीन रहते कि उन्हें देवी की अदृश्य उपस्थिति का अहसास होता रहता था।

एक दिन, एक दुखी माँ अपनी बच्ची को लेकर केंदु कलई के पास आई। उसे आशा थी कि शायद देवी की कृपा से उसकी बच्ची को जीवन मिल सकता है। उसने केंदु कलई से बहुत प्रार्थना की। शुरुआत में केंदु कलई ने इसे असंभव बताया, क्योंकि मृत व्यक्ति को पुनर्जीवित करना किसी साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं थी। लेकिन उस माँ की आस्था इतनी गहरी थी कि उन्होंने केंदु कलई को मना लिया और माँ से एक बार प्रार्थना करने का अनुरोध किया।

केंदु कलई ने उस माँ की विश्वास और श्रद्धा को देखकर देवी से प्रार्थना करने का निश्चय किया। उन्होंने उस बच्ची को अपने हाथों में उठाया और माँ कामाख्या की पवित्र शिला पर रख दिया। उन्होंने गहरे भाव से माँ से प्रार्थना की: “हे माँ! अगर आपको उचित लगे तो कृपा करके इस बच्ची को जीवन दान दें।”

उनकी प्रार्थना का चमत्कार हुआ। माँ कामाख्या ने उस बच्ची को जीवन दान दिया। वह बच्ची पुनः जीवित हो उठी। यह चमत्कार पूरे नगर में फैल गया और आखिरकार राजा नर नारायण तक भी पहुँच गया। जब राजा ने सुना कि केंदु कलई इतने बड़े भक्त हैं कि उन्होंने मृत को भी जीवित कर दिया, तो राजा नर नारायण की इच्छा जागी कि वे स्वयं माँ का साक्षात दर्शन करें।

लेकिन यहाँ एक गूढ़ सत्य था। स्थानीय भक्त जानते थे कि रात के समय, जब मंदिर के कपाट बंद हो जाते थे, तब केंदु कलई एक विशेष पूजा करते थे। इस पूजा के दौरान वे अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर माँ का आह्वान करते, भजन गाते, मंत्रों का उच्चारण करते और माँ साक्षात प्रकट होती थीं।

राजा नर नारायण ने केंदु कलई पर अत्यधिक दबाव बनाया कि माँ के दर्शन उन्हें करा दें। शुरू में तो उन्होंने मना कर दिया, परंतु अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पण के कारण केंदु कलई अंततः राजा की बात को मान लिया। उन्होंने राजा को गर्भगृह के एक छिद्र से माँ के दर्शन करने का एक उपाय सुझाया। केंदु कलई ने कहा कि जैसे ही वह माँ की स्तुति शुरू करेंगे, राजा उस छिद्र से माँ के दर्शन कर सकते हैं।

उस रात, केंदु कलई ने माँ की स्तुति करना शुरू किया और माँ कामाख्या प्रकट हो गयीं। लेकिन शीघ्र ही माँ को यह आभास हो गया कि उनके साथ छल हुआ है। देवी को राजा की छुपी उपस्थिति का आभास हो गया, और देवी को इस अनादर और छल का गहरा अपमान महसूस हुआ।

माँ कामाख्या ने क्रोधित होकर राजा नर नारायण को श्राप दिया कि उनके वंश का कोई भी सदस्य यदि इस क्षेत्र में, यहां तक कि नीलगिरी पर्वत क्षेत्र में प्रवेश करने की कोशिश करेगा, तो उसका वंश समाप्त हो जाएगा।

देवी के इस श्राप से भयभीत होकर राजा नर नारायण ने उस क्षेत्र को छोड़ दिया। और आज भी, उनके वंशज जब कामाख्या क्षेत्र से गुजरते हैं, तो अपनी आँखें ढँक लेते हैं या छाते का उपयोग करते हैं। ताकि माँ कामाख्या के दर्शन की गलती न हो। उस दिन से लेकर आज तक, कोच राजपरिवार के किसी भी सदस्य ने कभी कामाख्या मंदिर जाने की हिम्मत नहीं की और न ही नीलांचल पहाड़ियों के दर्शन किए।

राजा नर नारायण के वंशजों में कामाख्या मंदिर को लेकर जो खौफ है। उसका अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि जयपुर की महारानी गायत्री देवी, जो उस समय लोकसभा की सदस्य थीं, उनको गुवाहाटी जाना था। जब उन्हें बताया गया कि वे गुवाहाटी हवाई अड्डे से कामाख्या मंदिर के दर्शन कर सकती हैं, तब उन्हें तुरंत श्राप याद आ गया, और उन्होंने अपनी फ्लाइट रद्द कर दी। बाद में उन्होंने कलकत्ता हवाई अड्डे से सिलचर हवाई अड्डे के लिए फ्लाइट बुक की और फिर कार से गुवाहाटी पहुँचीं।

महारानी गायत्री देवी राजा नृपेंद्र नारायण की पुत्री थीं, और राजा नृपेंद्र नारायण राजा नर नारायण के प्रत्यक्ष वंशज थे। इस बात से उस श्राप का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

इस घटना का प्रभाव केवल राजा पर ही नहीं, केंदु कलई पर भी पड़ा। कुछ कथाओं के अनुसार, देवी ने केंदु कलई का सिर धड़ से अलग कर दिया, जबकि अन्य कथाओं में बताया गया है कि माँ ने उन्हें पत्थर की मूर्ति में बदल दिया। दोनों ही कहानियाँ माँ के क्रोध और केंदु कलई के प्रति उनके अनोखे संबंध का प्रतीक हैं।

कामाख्या धाम के ये रहस्य हमें माँ की असीम शक्ति और उनके भक्तों के प्रति उनके प्रेम और क्रोध दोनों की झलक दिखाते हैं। यह स्थान सिर्फ एक तीर्थ नहीं, बल्कि एक जीवंत ऊर्जा केंद्र है जो हमें आध्यात्मिकता के गहरे आयामों से जोड़ता है। आज कहानी को यही विश्राम देते हैं ।

 इस कहानी के अगले भाग में हम जानेंगे की मंदिर की स्थापना कैसे हुई और इसका स्थापत्य क्या है ? साथ ही जानने का प्रायस करेंगे कि कैसे मुग़लों ने इस पर आक्रमण किया था और अन्य बहुत कुछ …

                      जय माँ कामाख्या

कहानी जारी है … to be continued …

1 thought on “कामाख्या: नरकासुर, शाप और अनसुने राज”

  1. The post is mind blowing …unveils a lot about Maa Kamakhya

    wonderful post! Your research and presentation are brilliant. I lost myself in this mysterious world.

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