मोबाइल युग में खोता बचपन और बढ़ता अवसाद!

आज ‘अवसाद’ या डिप्रेशन शब्द बच्चों-बच्चों की ज़ुबान पर आम हो गया है। यह मानसिक बीमारी अब एक महामारी का रूप लेती जा रही है, और आजकल की जीवनशैली इसे बड़ी आसानी से अपना शिकार बना रही है। यह देखकर दिल कितना दुखी होता है, इसे शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है।

खोखले होते रिश्ते और अकेलापन

हम देखते हैं कि माता-पिता बच्चों के साथ दो पल बिताने के बजाय, अपने मोबाइल पर नेटवर्क खंगालना ज़्यादा पसंद करते हैं। विडंबना यह है कि बच्चों का भी यही हाल है; उन्हें भी बड़ों के पास नहीं बैठना, बल्कि मोबाइल में ही अपना समय बिताना अच्छा लगता है। जब मैं आज के छोटे बच्चों से मिलती हूँ, तो मेरे  आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता। इतनी कम उम्र में इतने सारे भारी-भरकम शब्द, इतनी निराशा और तनाव की बातें उनके पास आती कहाँ से हैं?

आज 12-14 साल के बच्चों को अपना ‘प्राइवेट स्पेस’ चाहिए। मैं सिर्फ़ कमरे की बात नहीं कर रही, इन बच्चों को अपने जीवन में, अपने विचारों में, अपनी भावनाओं में ‘प्राइवेट स्पेस’ चाहिए। हमारी उम्र में तो शायद हमें इस शब्द का अर्थ भी नहीं पता था। हम तो एक-दूसरे से जुड़े हुए, हँसते-खेलते बड़े हुए थे।माता-पिता आधुनिक बनने की होड़ में, यह जाने बिना कि वे अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं, उनकी हर उज़ूल-फ़ुज़ूल माँग मानते चले जा रहे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि खेलने-कूदने की उम्र में ये बच्चे अकेलेपन, अवसाद और यहाँ तक कि कभी-कभी आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। यह सिर्फ़ आँकड़े नहीं हैं; यह हमारे समाज की आत्मा पर लगा एक गहरा घाव है।

कहानियों से दूर होता बचपन

दादी-नानी की कहानियाँ अब बीते ज़माने की बात हो गई हैं। पंचतंत्र की कहानियाँ, जिनसे हमारा बचपन गुलज़ार रहता था, आज ज़्यादातर बच्चों को तो उनके बारे में पता भी नहीं है। वे प्रेरणा और नैतिकता से भरे उन अनमोल खज़ानों से वंचित हैं, जो हमें जीवन की सही राह दिखाते थे। इन कहानियों में सिर्फ़ मनोरंजन नहीं था, बल्कि जीवन के गहरे सबक थे जो हमें साहस, दया और समझदारी सिखाते थे।मैं यहाँ कौन सही और कौन ग़लत पर बहस करने नहीं आई हूँ। मेरा मन इस बात से दुखी है कि हमारे समाज के कर्णधार, हमारे बच्चे, किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। जब किसी बच्चे की आत्महत्या की ख़बर सुनते हैं, तो दिल अंदर तक झकझोर देता है कि इन मासूमों के साथ ये क्या हो रहा है? क्या हम ऐसे ही चुपचाप अख़बार पढ़कर कुछ क्षण का दुख मनाते रहेंगे, या आगे बढ़कर इन छोटे सूरजमुखियों के लिए सूरज बनने की कोशिश करेंगे?

हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी

हम इसी समाज में रहते हैं, इसलिए यह हमारी भी ज़िम्मेदारी है कि अपनी सूझबूझ और ज्ञान से अपने नन्हे-मुन्नों को एक सही दिशा दें। यह सिर्फ़ माता-पिता की नहीं, बल्कि हर नागरिक की नैतिक ज़िम्मेदारी है। इसके लिए सबसे पहले हमें अपने स्तर पर सुधार करना होगा, अपनी कमियों को दूर करना होगा। हमें अपने भीतर झाँकना होगा, अपने मोबाइल की दुनिया से बाहर निकलकर बच्चों के साथ सार्थक समय बिताना होगा। उन्हें कहानियाँ सुनानी होंगी, उनसे दिल खोलकर बातें करनी होंगी, उन्हें यह अहसास दिलाना होगा कि वे अकेले नहीं हैं।जब हम खुद में बदलाव लाएँगे, तभी हम किसी और की मदद कर सकेंगे। आइए, हम सब मिलकर इस बढ़ते अंधेरे को दूर करें और अपने बच्चों को एक ऐसा बचपन दें, जहाँ प्यार, हँसी और सुरक्षा हो, न कि अवसाद और अकेलापन। यह एक बड़ी चुनौती है, लेकिन हमारी सामूहिक इच्छाशक्ति और प्यार से हम इसे ज़रूर पार कर सकते हैं।

by Aruna Shaibya

7 thoughts on “मोबाइल युग में खोता बचपन और बढ़ता अवसाद!”

  1. aaj ke samay me to bacche mobile me hi sara bachpan khatm kar dete hain ….guardian bhi utne hi zimmedar hai in sab ke liye …

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